लखनऊ विश्वविद्यालय का शताब्दी वर्ष (कॉफी टेबल बुक)

एक मनमोहक, सौंदर्य से भरपूर...परिश्रम से लालित्य की तरफ- है कमाल...

संपादक की दृष्टि कहां तक जा सकती है, कितने परतों को भेद सकती है। गहरे स्याह कोने से भी उजाला खींच लाती है। ये पुस्तक उसी की मिसाल बनकर मेरे सामने आई है। जिसे में शब्दों में पिरोने की नाकाम कोशिश जरूर कर रहा हूं। सालों बाद इस पेज पर आने का उद्देश्य भी यही है कि जिस मित्र ने 'शंभु का संवाद' ब्लॉग बनाया था, वह भी तो संपादक मंडल का सबल हस्ताक्षर जो है। 

एक यूनिवर्सिटी के 100 जीवंत वर्ष
 शताब्दी वर्ष में कॉफी टेबल बुक को इस सज्जा के साथ   एक शेप में ले आना अपने आपमें किसी चुनौैती से कम   नहीं है। ये उस फिल्म मेकर से पूछकर देखिये जिसने एक   व्यापक डॉक्यूमेंट्री बनाई है। सभी सब्जेक्ट्स को करीने से   छुआ भी है। अंत तक पहुंचते-पहुंचते उसका प्रोड्यूसर   उससे कहते है- हे डायरेक्टर साहब, हमारे पास समय   कम है अब आप इस फिल्म को 25 मिनट में समेट दीजिए।  थोड़ा मान-मनौव्वल करने के बाद पूरे 30 मिनट दे दिए   जाते हैं। अब बताइये जिस डायरेक्टर के पास उसकी   फिल्म के लिए रॉ मटेरियल ही 50 घंटे का हो और उससे   कहा जाए कि 30 मिनट में समेट दीजिए। क्या बीतेगी उस   पर। मैं कॉफी टेबल बुक को देखकर उसी तरह का अनुमान जरूर लगा सकता हूं। संपादकों के पास बीते 100 जीवंत वर्षों की कितनी सामग्री रही होगी। उसके संपादन में कितनी ऊर्जा लगाई गई होगी। दिन रात का सतत परिश्रम जब सामने आया तो वाकई में एक संतुष्टि का एहसास होना क्या लाजिमी नहीं है। है बिल्कुल है। और हो भी क्यों न। मुकुल को मैं जानता हूं- मैथ्स की भाषा में बोले तो जिद्दी क्यूब है (जिद्दी3)... यानी कि जो जिद्द पकड़ ली तो पकड़ ली। और मुकुल की वहीं जिद्द इस कॉफी टेबल बुक में दिख भी रही है। जैसे ही मेरे पास ये कॉफी टेबल बुक स्पीड पोस्ट से पहुंची, मैं बता नहीं सकता कितनी खुशी मिली। क्योंकि जब भी मैं लखनऊ विश्वविद्यालय आया मुझे यहां की दिवारों में जीवंत इतिहास, अठखेलियां करता हुआ स्पष्ट नज़र आया। 

 मुकुल श्रीवास्तव, गीतांजलि मिश्रा- संपादक

''As we pondered over a fitting tribute, we wandered around with new eyes, seeking, searching. And then it hit us! We could not isolate, dissect, separate the university and its myriad aspects. Each nook, each cranny, each pillar, each dome, each lawn, the imposing wooden staircases, the class rooms with the century old wooden beams, the high vaulted classrooms, the domineering Tagore library, the rundown canteens, each part of this university reverberates with meaning and memories for us. As we are quite sure it does for the millions that have walked in its shadows.''
ये जो शब्द हैं इनकी गहराई में या तो आप डूब जाओ- जो कि आसान है लेकिन उतराओगे तभी तो पार पाओगे। वास्तव में मुकुल ने जब तक मेरे पास नया शब्द नहीं आ जाता तब तक मैं 'कमाल' शब्द को उधार लेने की इजाज़त चाहता हूं। हालांकि कमाल शब्द उतना मुकम्मल नहीं है जितना मुझे चाहिए। ख़ैर... लंबी गहरी सांस लेने के बाद अब मुझे लगता है मुकुल जैसा मित्र होना सौभाग्य की बात तो है।                    

तस्वीरों को देखकर लगता है इनमें मूवमेंट है। जब एक स्थिर चित्र चलायमान दिखने लगता है तो हमें समझ जाना चाहिए कि सिद्धांतों को स्थूलता में नहीं बल्कि व्यापकता में ही देखा जा सकता है। उसे छोटा करके देखना अन्याय है नाइंसाफी है। जो मेरे लिए नामुमकिन की कैटेगरी तक में जाता है। 
पुस्तक में सांस्कृतिक विरासत से लेकर आधुनिक और पोस्ट मॉर्डन सोच की झलक मानसिक सुकून तो देती ही है। और ऐसा हो भी क्यों न? 
हालांकि में पुराने घिसे-पिटे शब्दों को बेधड़क इस्तेमाल करता हूं, ये पता होते हुए भी कि अब इनमें वह व्यंजना नहीं है जो कभी इसके जन्म के समय रही होगी। बकौल मुकुल हमें आधुनिक पीढ़ी नए शब्द और शब्दावली सहज ही उपलब्ध करा देती है जो पुराने शब्दोंं को रिप्लेस कर देते हैं।


मुकुल और उसकी पूरी टीम इसलिए बधाई की पात्र है क्योंकि इस टीम ने इस किताब में कुछ भी अनावश्यक घुसेड़ा नहीं है। सब्जी में जितना नमक चाहिए उतना ही रहने दिया है। यही विवेक किसी भी टीम को पूर्ण बनाती है।
सार्थक और सही दिशा में परिश्रम करने के लिए लिए पूरी टीम को मेरा सलाम, मेरा अभिवादन स्वीकार कीजिए....आपका शंभु नाथ
 


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