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लखनऊ विश्वविद्यालय का शताब्दी वर्ष (कॉफी टेबल बुक)

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एक मनमोहक, सौंदर्य से भरपूर...परिश्रम से लालित्य की तरफ- है कमाल... संपादक की दृष्टि कहां तक जा सकती है, कितने परतों को भेद सकती है। गहरे स्याह कोने से भी उजाला खींच लाती है। ये पुस्तक उसी की मिसाल बनकर मेरे सामने आई है। जिसे में शब्दों में पिरोने की नाकाम कोशिश जरूर कर रहा हूं। सालों बाद इस पेज पर आने का उद्देश्य भी यही है कि जिस मित्र ने 'शंभु का संवाद' ब्लॉग बनाया था, वह भी तो संपादक मंडल का सबल हस्ताक्षर जो है।  एक यूनिवर्सिटी के 100 जीवंत वर्ष  शताब्दी वर्ष में कॉफी टेबल बुक को इस सज्जा के साथ   एक शेप में ले आना अपने आपमें किसी चुनौैती से कम   नहीं है। ये उस फिल्म मेकर से पूछकर देखिये जिसने एक   व्यापक डॉक्यूमेंट्री बनाई है। सभी सब्जेक्ट्स को करीने से   छुआ भी है। अंत तक पहुंचते-पहुंचते उसका प्रोड्यूसर   उससे कहते है- हे डायरेक्टर साहब, हमारे पास समय   कम है अब आप इस फिल्म को 25 मिनट में समेट दीजिए।  थोड़ा मान-मनौव्वल करने के बाद पूरे 30 मिनट दे दिए   जाते हैं। अब बताइये जिस डायरेक्टर के पास उसकी   फिल्म के लिए रॉ मटेरियल ही 50 घंटे का हो और उससे   कहा जाए कि 30 मिनट में

मातृ भाषा में हो न्याय

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अपनी भाषा में स्वयं को अभिव्यक्त करने के लिए किसी अतिरिक्त परिश्रम की कोई आवश्यकता नहीं होती है। ये बात किसी भी देशकाल , परिस्थिति में लागू होती है। लेकिन भारत में कुछ संस्थाओं को मातृभाषा के हिसाब से कभी अपग्रेड करने की आवश्यकता ही महसूस नहीं की गई। संभवतः इसमें निहित स्वार्थों का बड़ा मकड़कजाल भी काम करता रहा हो... फिर भी हमें उन निःस्वार्थी , अविचलगामी व्यक्तियों/संस्थाओं की प्रशंसा में अपनी कलम को चलाने में कंजूसी नहीं करनी चाहिए , जो इस भगीरथी काम में लगे हुए हैं। मिसाल के   तौर पर न्यायलयों की भाषा को ही लीजिए... लोअर कोर्ट से चला कोई मुकदमा सुप्रीम कोर्ट तक भी चला जाता है , लेकिन भाषा उसकी अंग्रेजी ही चलती रहती है... चाहे वो जिसका केस है उसे समझ आए ना आए... इससे किसी को कोई मतलब नहीं रहता... “ मुंआ हमारे वकील भी खूबई बोले , का बोले , जे नई पतों , पर बोलै गज़ब ” डॉ. अर्पणा शर्मा के लेख का ये शीषर्क अपने आपमें कोर्ट-कचहरी की सीमाओं की बहुत ही महीन व्याख्या करता है। आख़िर आज के आज़ाद भारत में अंग्रेजी की ऐसी कौन सी मज़बूरी है जिसने कोर्ट को अभी तक    अपनी गिरफ्त में लिया

‘विचार’ तो विचार हैं

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‘विचार’ तो विचार हैं.... फिर वो चाहे ‘राइट’ हो या ‘लेफ्ट’... वैचारिक ‘क़त्लेआम’ का विरोध होना ही चाहिए_________ लेकिन भारत ऐसा देश बन गया था (शुक्र है अब वो स्पेस खुल रहा है) जहां केवल ‘लाल’ विचार को सलाम करने पर ही आपको ‘बुद्धिजीवी’ माना जाता था... हालांकि ये विचार ही अपने आपमें ‘बुद्धि’ का ‘कोढ़’ था, जिसका चंद साल में ही ‘अच्छा’ इलाज हो गया है... होना भी चाहिए था, होता भी क्यों नहीं ?  ____भारत में ‘कथित मीडिया’ हमेशा से ही ‘लाल सलाम’ के क़ब्जे में रहा है, वो तो शुक्र है तकनीक का, नहीं तो ये हमें इस 21वीं शताब्दी में भी ‘मानसिक गुलाम’ बनाकर ही रखने की मंशा पाले हुए थे... यदि ‘सोशल मीडिया’ जैसे स्वतंत्र प्लेटफॉर्म ना होते तो हमें आज भी ‘मानसिक गुलाम’ बनकर जीने पर मजबूर होना पड़ता....  अब जिसने भी बैंगलुरू में ‘गौरी लंकेश’ की हत्या की है, उसकी पहले सही तरह से जांच हो जानी चाहिए, ‘लाल बंदरों’ से मेरा आग्रह है कि वो अपने ‘गोत्र’ की कर्नाटक सरकार पर दबाव बनाएं कि पहले वो हत्यारों को ढूंढे, सलाखों के पीछे पहुंचाएं, अपनी ‘मानसिक जांच’ के आधार पर पहले ही नतीजे पर ना पहुंचे... अब

भारत में 'हलाल सर्टिफाइड' फूड की मनमानी

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मानव विकास में शरुआती खान-पान मांस आहार ही था, खुद मारकर कच्चा मांस ही खाया जाता था,  धीर-धीरे बाक़ी चीजें इसमें जुड़ती गईं... विकास के साथ प्रकृति की वो खाने की वस्तुएं भी जुड़ती गईं, जिसके लिए मनुष्य को ज्यादा परिश्रम करना पड़ता था, इसके बाद खान-पान की आदतों में बदलाव आने लगा, वर्गीकरण मांसाहारी और शकाहारी का होता चला गया... वक्त बीतने के साथ-साथ मांस खाने के नियम बने और समाजों ने उनके मुताबिक जानवरों को मारने का तरीका अपने हिसाब से ईजाद कर लिया... इसमें किसी को कोई आपत्ति भी नहीं, हो भी क्यों ?  सभी समाजों में ख्याल ये रखा जाने लगा कि जिस जानवर को जीभ के लिए क़ुर्बान किया जा रहा है, उसे कम से कम तकलीफ हो... इसके बाद जानवरों को मारने के कई मॉड्यूल विकसित होते चले गए... इस पर भी किसी को कोई आपत्ति नहीं। सभी देशों ने अपने हिसाब से और प्राकृतिक संतुलन के विश्व मानको को नज़र में रखते हुए अपने-अपने मानक तैयार कर लिए... समय बीतने के साथ खाड़ी देशों में इस्लाम जन्म लेता है और वहां जानवरों को मारने के दुनिया में प्रचलित नियमों से अलग नियम बनाए जाते हैं... चुंकि इस पूरे इलाके

सांप्रदायिकता पर समान प्रहार कब ?

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ये चारो चित्र मेरी कोरी कल्पना मात्र हैं... ऐसा भारतीय इतिहास में कभी नहीं हुआ, होता भी कैसे ? कुछ स्वार्थ पिपासुओं ने ऐसी संस्कृति विकसित होने ही नहीं दी, मुझे लगता है जिसमें गांधी जी इन सभी के सिरमौर थे, ऐसा मुझे लगता है- जरूरी नहीं आपको भी लगे... जिसे आज़ादी के बाद कथित पंडित नेहरू 'जी' ने वामपंथियों के साथ मिलकर एक षड़यंत्र के साथ फुल रफ्तार से आगे बढ़ाया... और ये वो संस्कृति थी, जिसमें दूसरी-तीसरी-चौथी पीढ़ी विकसित होने लगी... उन्हें लगने लगा कि यही संस्कृति ही सेकुलरिज़्म की संस्कृति है... ऐसे ही भारत चलेगा... इसी उहापोह में भारत के सबसे अहम 6,7 दशक बीत गए... यानी इस दौर में ये एकतरफा संस्कृति रूढ़ होती चली गई... गोधरा कांड के बाद अतार्किक चीजों को इतना आगे बढ़ाया गया कि उसकी स्वभाविक प्रतिक्रिया 2014 में दिखी... पोस्ट गोधरा के बाद इतनी सारी चीजें एक साथ घटित हो रहीं थी कि भारतीय जनता ने 'मोदी' नाम के विचार के साथ स्वभाविक और अस्वभाविक अपना मानसिक गठबंधन बना लिया... वो भी इसलिए हो पाया, क्योंकि इस बीच मीडिया का सबसे सशक्त माध्यम सोशल मीडिया धीरे

ग्रेजुएशन के दोस्त, 25 साल का याराना, पार्ट-1

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साल 1989 का वो दिन जब B.A. (Hons.) Geography की लिस्ट आनी थी... 12वीं पास करके एक ऐसी दुनियां में कदम रखने जा रहे थे, जहां से दुनिया का नया फलक खुलने वाला था... तस्वीर में कनीज़ की दबंगई दिखती है 12 में हमने माज़िद हुसैन की लिखी हुई हिंदी में भूगोल की किताब पढ़ी और वही टीचर जामिया में हमारे सामने थे... सोचो हमारी खुशी का ठिकाना क्या रहा होगा...? उस वक्त जामिया में ग्रेजुएशन में एडमिशन के लिए इंटरव्यू से गुजरना होता था... (हो सकता है आज भी गुजरना होता हो) शायद इसलिए ही हमारा एडमिशन जामिया में हो भी गया... क्योंकि हमारे अंदर टेलेंट तो कूट-कूटकर भरा हुआ था... गिरि समेत हमारे सभी दोस्तों का पहली ही लिस्ट में नंबर आ गया... टेलेंट होने के बावजूद मेरा नंबर वेटिंग लिस्ट में ही था... क्योकि डेस्टिनी को कुछ और ही मंजूर था... मेरा भी एडमिशन ज्योग्राफी में ही हो गया... साल 1989... क्लास में तरह-तरह के सर्वे... प्रेक्टिकल.... मैप... और ना जाने क्या-क्या... 25 साल पहले ऐसा नहीं था गिरि इसी बीच class representative यानी सीआर का इलेक्शन हुआ... हमारे घनश्याम मिश्रा जी सीआर चुने गए...

डिप्टी नज़ीर अहमद-जिन्होंने दिया ‘इंडियन पेनल कोड’ नाम ताज़िरात-ए-हिंद

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हिंदुस्तान ने जिन्हें भुला दिया डिप्टी नज़ीर अहमद ने   दिया   था  ‘ इंडियन   पेनल   कोड ’ नाम  ताज़िरात-ए- – हिंद   पुरानी हिन्दी फिल्मों में आपने अक्सर जज को सज़ा सुनाते वक्त ताज़िरात-ए-हिंद  शब्द का इस्तेमाल करते हुए ज़रूर सुना होगा, लेकिन शायद ही आप इस शब्द का इज़ाद करने वाले का नाम जानते होंगे, तो चलिए आज आपको इसकी की जानकारी दी जाए... जिस प्रकार हिन्दी साहित्य में मुंशी प्रेमचंद का नाम है, ठीक वैसे ही नाम डिप्टी नज़ीर अहमद का उर्दू साहित्य में है, चांदनी चौक की गलियों में रहकर डिप्टी नज़ीर अहमद साहब ने न जाने कितना बड़ा साहित्य रच डाला, कि आज रिसर्च करने वाले स्टुडेंट्स उस स हित्य को पता नहीं कहां-कहां से ढूंढ कर ला रहे हैं, फिर भी जितना काम नज़ीर साहब पर होना चाहिए, उतना हुआ नहीं हैं... हालांकि मास कम्युनिकेशन का विद्यार्थी होने से पहले 2 साल तक मैं भी साहित्य का विद्यार्थी रहा हूं, लेकिन दुर्भाग्य से मुझे भी डिप्टी नज़ीर अहमद के बारे में जानकारी नहीं थी... डिप्टी साहब की हवेली के सामने सेल्फी मेरे एक बहुत ही अजीज़ दोस्त हैं- चंद्रशेखर मल्होत्रा (जिन्हें हम प्