अपनी भाषा में स्वयं को अभिव्यक्त करने के लिए किसी अतिरिक्त परिश्रम की कोई आवश्यकता नहीं होती है। ये बात किसी भी देशकाल , परिस्थिति में लागू होती है। लेकिन भारत में कुछ संस्थाओं को मातृभाषा के हिसाब से कभी अपग्रेड करने की आवश्यकता ही महसूस नहीं की गई। संभवतः इसमें निहित स्वार्थों का बड़ा मकड़कजाल भी काम करता रहा हो... फिर भी हमें उन निःस्वार्थी , अविचलगामी व्यक्तियों/संस्थाओं की प्रशंसा में अपनी कलम को चलाने में कंजूसी नहीं करनी चाहिए , जो इस भगीरथी काम में लगे हुए हैं। मिसाल के तौर पर न्यायलयों की भाषा को ही लीजिए... लोअर कोर्ट से चला कोई मुकदमा सुप्रीम कोर्ट तक भी चला जाता है , लेकिन भाषा उसकी अंग्रेजी ही चलती रहती है... चाहे वो जिसका केस है उसे समझ आए ना आए... इससे किसी को कोई मतलब नहीं रहता... “ मुंआ हमारे वकील भी खूबई बोले , का बोले , जे नई पतों , पर बोलै गज़ब ” डॉ. अर्पणा शर्मा के लेख का ये शीषर्क अपने आपमें कोर्ट-कचहरी की सीमाओं की बहुत ही महीन व्याख्या करता है। आख़िर आज के आज़ाद भारत में अंग्रेजी की ऐसी कौन सी मज़बूरी है जिसने कोर्ट को अभी तक अपनी गिरफ्त में लिया
इससे बहाने ब्लॉग तो बना बस अब आप लिखते रहिये
ReplyDeleteDuniya ki parvah mat karo sir, ye to aise hi kahti hai. Aap likhte raho kadra karne wale apne aap aa jaate hain. Suno sabki, vichar karo aur karo apne man ki - Subhash
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