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Showing posts from September, 2017

मातृ भाषा में हो न्याय

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अपनी भाषा में स्वयं को अभिव्यक्त करने के लिए किसी अतिरिक्त परिश्रम की कोई आवश्यकता नहीं होती है। ये बात किसी भी देशकाल , परिस्थिति में लागू होती है। लेकिन भारत में कुछ संस्थाओं को मातृभाषा के हिसाब से कभी अपग्रेड करने की आवश्यकता ही महसूस नहीं की गई। संभवतः इसमें निहित स्वार्थों का बड़ा मकड़कजाल भी काम करता रहा हो... फिर भी हमें उन निःस्वार्थी , अविचलगामी व्यक्तियों/संस्थाओं की प्रशंसा में अपनी कलम को चलाने में कंजूसी नहीं करनी चाहिए , जो इस भगीरथी काम में लगे हुए हैं। मिसाल के   तौर पर न्यायलयों की भाषा को ही लीजिए... लोअर कोर्ट से चला कोई मुकदमा सुप्रीम कोर्ट तक भी चला जाता है , लेकिन भाषा उसकी अंग्रेजी ही चलती रहती है... चाहे वो जिसका केस है उसे समझ आए ना आए... इससे किसी को कोई मतलब नहीं रहता... “ मुंआ हमारे वकील भी खूबई बोले , का बोले , जे नई पतों , पर बोलै गज़ब ” डॉ. अर्पणा शर्मा के लेख का ये शीषर्क अपने आपमें कोर्ट-कचहरी की सीमाओं की बहुत ही महीन व्याख्या करता है। आख़िर आज के आज़ाद भारत में अंग्रेजी की ऐसी कौन सी मज़बूरी है जिसने कोर्ट को अभी तक    अपनी गि...

‘विचार’ तो विचार हैं

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‘विचार’ तो विचार हैं.... फिर वो चाहे ‘राइट’ हो या ‘लेफ्ट’... वैचारिक ‘क़त्लेआम’ का विरोध होना ही चाहिए_________ लेकिन भारत ऐसा देश बन गया था (शुक्र है अब वो स्पेस खुल रहा है) जहां केवल ‘लाल’ विचार को सलाम करने पर ही आपको ‘बुद्धिजीवी’ माना जाता था... हालांकि ये विचार ही अपने आपमें ‘बुद्धि’ का ‘कोढ़’ था, जिसका चंद साल में ही ‘अच्छा’ इलाज हो गया है... होना भी चाहिए था, होता भी क्यों नहीं ?  ____भारत में ‘कथित मीडिया’ हमेशा से ही ‘लाल सलाम’ के क़ब्जे में रहा है, वो तो शुक्र है तकनीक का, नहीं तो ये हमें इस 21वीं शताब्दी में भी ‘मानसिक गुलाम’ बनाकर ही रखने की मंशा पाले हुए थे... यदि ‘सोशल मीडिया’ जैसे स्वतंत्र प्लेटफॉर्म ना होते तो हमें आज भी ‘मानसिक गुलाम’ बनकर जीने पर मजबूर होना पड़ता....  अब जिसने भी बैंगलुरू में ‘गौरी लंकेश’ की हत्या की है, उसकी पहले सही तरह से जांच हो जानी चाहिए, ‘लाल बंदरों’ से मेरा आग्रह है कि वो अपने ‘गोत्र’ की कर्नाटक सरकार पर दबाव बनाएं कि पहले वो हत्यारों को ढूंढे, सलाखों के पीछे पहुंचाएं, अपनी ‘मानसिक जांच’ के आधार पर पहले ही नतीजे पर ना पहुं...