स्मारक संरक्षण (Monuments Preservation)
विज्ञान एक ओर जहां भविष्य की बेहतर तस्वीर तराशकर, वर्तमान को जीने का उत्साह देता है, वहीं आने वाली पीढि़यों के लिए अतीत को सुरक्षित भी बनाता चलता है, ताकि वे इतिहास से प्रेरणा लेकर बेहतर भविष्य की रचना कर सकें। भारतीय पुरातत्व विभाग, विज्ञान की मदद लेकर हमारी ऐसी ऐतिहासिक धरोहरों के संरक्षण में लगा हुआ है जो कि न केवल भारतीय संस्कृति और सभ्यता का गौरव है बल्कि विश्व धरोहरों की श्रेणी में भी आते हैं। स्मारकों को संरक्षण की जरुरत इसलिए भी अधिक होती है क्योंकि ये बरसात, तापमान और प्रदूषण के संपर्क में अधिक आते हैं, पानी तो इनका सबसे बड़ा शत्रु है, इसलिए प्रत्येक स्मारक को लगातार पैनी निगाहों (specialized attention) की जरूरत होती है ताकि ये यूं हीं सदियों तक खड़ी रहें।
हालांकि इतिहास में भी स्मारकों को संरक्षित करने के लिए ऑयली और वैक्स कंपाउंड का इस्तेमाल होता रहा है, लेकिन बाद में टिकाउपन न होने की वजह से प्रिज़ेटिव के तौर पर सिंथेटिक मैटेरियल्स का इस्तेमाल होने लगा, जैसे थर्मोप्लास्टिक रेज़िन, एक्रलिक रेज़िन, पॉलीविनायल ऐसीलेट, एपॉक्सी रेड़िन, पॉलीयूरेथेंस इत्यादि।
जिस प्रकार मनुष्य की बीमारी को डायग्नोस़ करके उसका इलाज किया जाता है, ठीक उसी प्रकार भारतीय पुरातत्व विभाग की देहरादून स्थित साइंस लैब में ऐतिहासिक इमारतों के स्वास्थ्य की जांच करके इलाज सुझाए जाते हैं, यहां स्मारकों में लगे पत्थरों के व्यवहार का अध्ययन किया जाता है, तरह-तरह के प्रयोग किए जाते हैं, जैसे किसी पत्थर की पोरोसिटि कितनी है, एक निश्चित समय में कोई पत्थर कितना पानी सोख रहा है, पत्थर केपिलेरिटि के जरिये कितना पानी अपने अन्दर सोख रहा है और किसी पत्थर की वेपर परमेबिलिटी कितनी है ?
देहरादून की सांइस लैब में स्मारकों का बारीक अध्ययन करने के लिए अत्याधुनिक मशीनों का सहारा भी लिया जाता है। पत्थरों में ऑर्गेनिक कंपाउंड का अध्ययन करने के लिए स्केनिंग इलेक्ट्रॉन माइक्रोस्कोप का इस्तेमाल किया जाता है, जिससे तटीय इलाकों में मौजूद स्मारकों को संरक्षण के लिए उपाय सुझाए जाते हैं, जैसे उसमें कौन-सा जीवाणु पत्थर को कितना नुकसान पहुंचा रहा है ?
इसी तरह “Infra Red Spectrophotometer” से किसी मैटेरियल में मौजूद मेटल कंपाउंड्स की स्थिति का पता लगाया जा सकता है, इसके अलावा gas chromatograph नाइट्रोजन, ऑक्सीजन और हाइड्रोजन गैस की सहायता से किसी भी पदार्थ के ऑर्गेनिक कंपाउंड को अलग-अलग करके बता देता है जिससे किसी तटवर्तीय स्मारक के ट्रीटमेंट की स्थिति साफ हो जाती है। मसलन अलग-अलग हुए ऑर्गेनिक कंपाउंड को नष्ट करने के लिए किस प्रकार के ट्रीटमेंट की आवश्यकता है ? सैब में पत्थर की कंप्रेशन स्ट्रैंथ को भी जांचा जाता है। जिसके बाद किसी स्मारक की मरम्मत की दिशा तय होती है। जैसे उस इमारत पर कितना और भार डाला जा सकता है।
किसी स्मारक को काई से बचाने के लिए, अमोनिया को डिस्टिल वॉटर के साथ मिलाकर इस्तेमाल किया जाता है, फंगस से बचाने के लिए सोडियम पेंटाक्लोरो फेनेट और ज़िंक सिलिकोफ्लोराइड का इस्तेमाल होता है।
ऐतिहासिक कलाकृतियों का महत्व उसके वास्तविक रूप में रहने पर ही अक्षुण बना रहता है, और इसी शर्त के आधार पर कि उसकी मौलिकता से छेड़छाड़ ना हो। पैंटिग्स या शाही फरमान को रिस्टोर किया जाता है, यहां आने वाली कोई भी पेंटिग्स का सबसे पहले फोटोग्राफी डॉक्यूमेंटेशन किया जाता है और बाद में फ्युमिगेशन प्रक्रिया से गुजार कर कीड़े-मकौड़े और उनके अण्डों को मार दिया जाता है। इसके बाद साधारण सफाई फिर रासायनिक सफाई और फिर दाग हटाए जाते हैं, पेंटिंग्स पर ऐसा कोई मेटेरियल नहीं चिपकाया जाता जिसे हटाया न जा सके। इस तरह के वैज्ञानिक तौर तरीकों से ऐतिहासिक स्मारक, पैंटिंग्स और कलाकृतियां आने वाली पीढि़यों के लिए संरक्षित हो पाती हैं।
और इस तरह विज्ञान का एहसास जहां वर्तमान और भविष्य दोनों साथ-साथ करते हैं, वहीं विज्ञान अतीत को भी छूने की क्षमता रखता है, ताकि उनका अस्तित्व भविष्य के लिए यूं ही सुरक्षित रह सके।
हालांकि इतिहास में भी स्मारकों को संरक्षित करने के लिए ऑयली और वैक्स कंपाउंड का इस्तेमाल होता रहा है, लेकिन बाद में टिकाउपन न होने की वजह से प्रिज़ेटिव के तौर पर सिंथेटिक मैटेरियल्स का इस्तेमाल होने लगा, जैसे थर्मोप्लास्टिक रेज़िन, एक्रलिक रेज़िन, पॉलीविनायल ऐसीलेट, एपॉक्सी रेड़िन, पॉलीयूरेथेंस इत्यादि।
जिस प्रकार मनुष्य की बीमारी को डायग्नोस़ करके उसका इलाज किया जाता है, ठीक उसी प्रकार भारतीय पुरातत्व विभाग की देहरादून स्थित साइंस लैब में ऐतिहासिक इमारतों के स्वास्थ्य की जांच करके इलाज सुझाए जाते हैं, यहां स्मारकों में लगे पत्थरों के व्यवहार का अध्ययन किया जाता है, तरह-तरह के प्रयोग किए जाते हैं, जैसे किसी पत्थर की पोरोसिटि कितनी है, एक निश्चित समय में कोई पत्थर कितना पानी सोख रहा है, पत्थर केपिलेरिटि के जरिये कितना पानी अपने अन्दर सोख रहा है और किसी पत्थर की वेपर परमेबिलिटी कितनी है ?
देहरादून की सांइस लैब में स्मारकों का बारीक अध्ययन करने के लिए अत्याधुनिक मशीनों का सहारा भी लिया जाता है। पत्थरों में ऑर्गेनिक कंपाउंड का अध्ययन करने के लिए स्केनिंग इलेक्ट्रॉन माइक्रोस्कोप का इस्तेमाल किया जाता है, जिससे तटीय इलाकों में मौजूद स्मारकों को संरक्षण के लिए उपाय सुझाए जाते हैं, जैसे उसमें कौन-सा जीवाणु पत्थर को कितना नुकसान पहुंचा रहा है ?
इसी तरह “Infra Red Spectrophotometer” से किसी मैटेरियल में मौजूद मेटल कंपाउंड्स की स्थिति का पता लगाया जा सकता है, इसके अलावा gas chromatograph नाइट्रोजन, ऑक्सीजन और हाइड्रोजन गैस की सहायता से किसी भी पदार्थ के ऑर्गेनिक कंपाउंड को अलग-अलग करके बता देता है जिससे किसी तटवर्तीय स्मारक के ट्रीटमेंट की स्थिति साफ हो जाती है। मसलन अलग-अलग हुए ऑर्गेनिक कंपाउंड को नष्ट करने के लिए किस प्रकार के ट्रीटमेंट की आवश्यकता है ? सैब में पत्थर की कंप्रेशन स्ट्रैंथ को भी जांचा जाता है। जिसके बाद किसी स्मारक की मरम्मत की दिशा तय होती है। जैसे उस इमारत पर कितना और भार डाला जा सकता है।
किसी स्मारक को काई से बचाने के लिए, अमोनिया को डिस्टिल वॉटर के साथ मिलाकर इस्तेमाल किया जाता है, फंगस से बचाने के लिए सोडियम पेंटाक्लोरो फेनेट और ज़िंक सिलिकोफ्लोराइड का इस्तेमाल होता है।
ऐतिहासिक कलाकृतियों का महत्व उसके वास्तविक रूप में रहने पर ही अक्षुण बना रहता है, और इसी शर्त के आधार पर कि उसकी मौलिकता से छेड़छाड़ ना हो। पैंटिग्स या शाही फरमान को रिस्टोर किया जाता है, यहां आने वाली कोई भी पेंटिग्स का सबसे पहले फोटोग्राफी डॉक्यूमेंटेशन किया जाता है और बाद में फ्युमिगेशन प्रक्रिया से गुजार कर कीड़े-मकौड़े और उनके अण्डों को मार दिया जाता है। इसके बाद साधारण सफाई फिर रासायनिक सफाई और फिर दाग हटाए जाते हैं, पेंटिंग्स पर ऐसा कोई मेटेरियल नहीं चिपकाया जाता जिसे हटाया न जा सके। इस तरह के वैज्ञानिक तौर तरीकों से ऐतिहासिक स्मारक, पैंटिंग्स और कलाकृतियां आने वाली पीढि़यों के लिए संरक्षित हो पाती हैं।
और इस तरह विज्ञान का एहसास जहां वर्तमान और भविष्य दोनों साथ-साथ करते हैं, वहीं विज्ञान अतीत को भी छूने की क्षमता रखता है, ताकि उनका अस्तित्व भविष्य के लिए यूं ही सुरक्षित रह सके।
भारत में सौ वर्षों से अधिक पुराने नीर्माण को संरक्षित करने का कानून है ।
ReplyDeleteयहां गोरखपुर में क्षेत्रिय उप श्रमायुक्त कार्यालय सिविल लाइंस गोरखपुर सौ वर्षों से अधिक पुराना है और अच्छी हालत में है। इसी में कार्यालय चल रहा है । इसमें लगा हुआ दो ब्लेड का पंखा भी संरक्षित किए जाने योग्य है । इस भवन को गिराने पर बिचारी हो रहा है ।इसे संरक्षित किया जाना चाहिए । आपके ब्लॉग में ऐसे निर्माण को बचाने के लिए किसे लिखा जाना चाहिए पता नहीं लिखा है । राष्ट्रीय संस्मारक प्राधिकरण, 24 तिलक मार्ग नई दिल्ली 11001 है लेकिन ईमेल पता नहीं है । बताया जाना चाहिए ।