विज्ञान बोरियत का दूसरा नाम बिल्कुल नहीं है।
जब हम भारत के चंद्रयान की बात करते हैं तो इसमें हमें निश्चित तौर पर गर्व होना चाहिए और होता भी है, अब तक हमने उन बातों पर गर्व किया जिसे हमने देखा नहीं है, लेकिन अब वक्त आ गया है क हम अपने विज्ञान पर भी गर्व करना सीखें। आज हम अपने उन लोगों पर विश्वास और गर्व कर सकते हैं जिन्होंने हमें निराशा के गर्त से बाहर लाने का काम किया है।
भारत में विज्ञान को अक्सर जानबूझकर बोर बनाया जाता है, बच्चे लाखों की तादात में विज्ञान विषय में अरुचि की वजह से उसे छोड़ देना बेहतर समझते हैं। मैं भी उन लाखों बच्चों में से एक था। लेकिन जब मैंने मीडिया में घुसकर इस विषय को जानने की कोशिश की तो जाना कि विज्ञान उतना
गूढ़ नहीं है जितना उसे गूढ़ बनाने का प्रयास किया जाता है।
एक उदाहरण आपको देना चाहता हूं। गांधीवाद जैसा विषय जिसे अच्छे से अच्छा गांधीवादी भी सरल ढंग से कभी पेश नहीं कर पाया। उन लोगों ने इसे ज्यादा मुश्किल बनाकर रखा, जो लोग गांधीवाद पर दुकान चला रहे थे। ऐसा नहीं है कि उसे आसान बनाया नहीं जा सकता था, लेकिन उसके लिए अतिरिक्त मेहनत करनी पड़ती है। मानवीय स्वभाव ऐसा है कि वो मुश्किल चीजों से अक्सर बचना ही चाहता है। आराम से जो हो जाए वही वो करना चाहता है। बस नतीजा ये हुआ कि गांधीवाद, गांधी जी के मरने के बाद...कई दशकों तक यूं ही गूढ़ बना रहा। जबकि पूरी दुनिया उसके महत्व को समझ रही थी, लेकिन जिस देश की वो थाती था... वही देश उससे महरुम दिखता रहा। इसे विडंबना ही कहना चाहिए। संयुक्त राष्ट्र 2 अकटूबर को विश्व शांति दिवस मनाता रहा, लेकिन भारत गांधी के विचार से लगातार प्यासा ही रहा। वजह साफ थी गांधी विचार को लगातार दुरुह बनाकर रखा गया। हो सकता हो ऐसा अनजाने में ही हुआ हो, फिर भी ऐसा हुआ तो है।
जबकि पूरी दुनिया गांधी की प्रासंगिकता पर गदगद हुए जा रही थी, एक हम थे कि मुर्खों की तरह जापान,जर्मनी समेत बाक़ी दुनिया को गांधीवाद के लिए निहार रहे थे। क्योंकि जापान और जर्मनी ने गांधीवाद को ढंग से समझा।
हमारे गांधी हमी से अनजान रहे। लेकिन फिल्म लगे रहो मुन्नाभाई ने जिस आसान तरीके से गांधीवाद को समझाया और उसे प्रेक्टिकल बनाकर दिखाया, शायद कोई भी ऐसा नहीं कर पाया।
आखिर ऐसा क्यों हो पाया ? बस केवल और केवल गांधीवाद को आसान करने की वजह से। हालांकि फिल्मकार को इसके लिए काफी मशक्कत करनी पड़ी होगी। क्योंकि चीजों को सिम्लिफाई करना शायद सबसे बड़ा चुनौतीपुर्ण काम होता है। इसी चुनौती को शायद हमारे विज्ञान के टीचर्स नहीं लेते हैं। दूसरी तरफ पश्चिमी देशों में विज्ञान को बेहद आसान और सुरुचिपूर्ण तरीकों से पढ़ाया जाता है। यदि पोगो चैनल के कुछ ऐसे प्रोग्राम्स को देखा जाए तो इसे और भी बेहतर तरीके से समझा जा सकता है।
अब मैं आता हूं मुद्दे पर....आखिर न्यूज़ मीडिया में विज्ञान का क्या भविष्य है ?
हालांकि मैंने इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में विधिवत शुरुआत सन् 1998 में की थी लेकिन शुरुआत में, मैं भी राजनीति से ज्यादा प्रेरित था, जैसा कि कोई भी युवा हो सकता है। श्री विनोद दुआ के साथ परख, प्रतिदिन, सहारा न्यूज़लाइन करने लगा। साढ़े तीन साल ये सब किया। तीन साल की इस अवधि में ही मुझे इसमें छिपी वो सारी बातें पता चल गई, नेताओं के पीछे माइक लेकर भागना, बाइट में ही पूरी पत्रकारिता का सिमट जाना, मानों ऐसा लगने लगा कि क्या ऐसे ही चलते चले जाने का नाम पत्रकारिता है ?
प्यास बुझाने के चक्कर में छोड़ दिया मुख्यधारा का मीडिया और पहुंच गया एक ऐसी जगह जहां हालांकि मैं कहने को वनवास में था। लेकिन उस वनवास ने सीखने की एक ऐसी दृष्टि उपलब्ध कराई जिसके बाद चुनौतियों से लड़कर बहुत कुछ सीखने को मिला। श्री संजय त्रिपाठी के साथ उन सारी चीजों को सीखा जिनसे विषयों को आसान बनाया जाता है। संजय जी के साथ ये सीखा कि जब तक आप विज्ञान को आसान नहीं बनाएंगे, तब तक न तो उसे कोई समझेगा और न ही कोई उसमें रुचि लेगा। इससे पहले एक गुरु मंत्र श्री विनोद दुआ से मिल ही चुका था कि जिस हिन्दी में आप अपनी मां से संवाद करते हो, केवल उसी तरह की भाषा का इस्तेमाल टेलिविज़न में इस्तेमाल करो।
मौका आया 2005 का, ये साल था अलबर्ट आइंस्टाइन की 'थ्योरी ऑफ़ रिलेटिविटी' के सौ साल पूरे होने का। इस साल को युनाइटेड नेशन्स ने नाम दिया 'इअर ऑफ़ मॉडर्न फिजिक्स'
इसी विषय पर पूरे साल भर कार्यक्रमों की भरमार रही। 'पॉपुलराइज़ेशन ऑफ़ साइंस' के तहत इस पर तरह-तरह के प्रोग्राम्स बनाए गए। टेलिविज़न पर भी इसको लेकर प्रोग्राम्स बनाए गए। डिस्कवरी और नेशनल ज्योग्राफिक ने इसमें बाजी मारी। 2005 में किसी भी भारतीय चैनलों के मुक़ाबले इन्होंने टीआरपी के मामले में भी बाजी मारी। हालांकि हिन्दुस्तानी लोगों ने इन चैनलों के हिन्दी संस्करणों
को ही देखने में ज्यादा रुचि दिखाई है। दिखाए भी क्यों ना ?
विज्ञान प्रसार, डिपार्टमेंट ऑफ़ साइंस एंड टेक्नॉलोजी, भारत सरकार ने भी इस टॉपिक पर प्रोग्राम बनाने का मन बनाया। विषय था 'थ्योरी ऑफ़ रिलेटिविटी' जिसे बनाया जाना था हिन्दी में। ये भी अपने आपमें एक चुनौतिपूर्ण था। बहरहाल इसी में छुपा हुआ था मेरा विज्ञान से नाता ना होने का ऐसा बड़ा तर्क, जिसे चुनौती देना 'थ्योरी ऑफ़ रिलेटिविटी' पर फिल्म बनाने से बड़ी चुनौती था...
मैंने चुनौती दी और 22 मिनट की ऐसी डॉक्युमेंटरी बनाई फिल्म बनाई...जिसने आलोचकों की वाहवाही तो लूटी ही साथ ही यूजीसी का नेशनल अवॉर्ड भी जीता...
ये सिलसिला बदस्तूर जारी भी रहा...फिर एक पॉपुलर न्यूज़ चैनल में प्रवेश किया...'चंद्रयान' पर 10 सीरीज़ का एक ऐसा प्रोग्राम बनाया जिसने प्रमुख न्यूज़ चैनलों में वाहवाही भी लूटी....इसरो और उस समय के इसरो प्रमुख माधवन नायर ने चंद्रयान पर बनी इस सीरीज़ की प्रशंसा की...
लेकिन विज्ञान की लोकप्रिय कथाओं को न्यूज़ संस्करण का पहिया धामी गति में आ गया है...
प्रयास है इसकी रफ्तार बढ़ाई जाए....संभवत: 2011 इस दिशा में नया साल हो सकता है।
"सभी साथियों से सहयोग की अपेक्षा है''
आपका
शंभुनाथ
भारत में विज्ञान को अक्सर जानबूझकर बोर बनाया जाता है, बच्चे लाखों की तादात में विज्ञान विषय में अरुचि की वजह से उसे छोड़ देना बेहतर समझते हैं। मैं भी उन लाखों बच्चों में से एक था। लेकिन जब मैंने मीडिया में घुसकर इस विषय को जानने की कोशिश की तो जाना कि विज्ञान उतना
गूढ़ नहीं है जितना उसे गूढ़ बनाने का प्रयास किया जाता है।
एक उदाहरण आपको देना चाहता हूं। गांधीवाद जैसा विषय जिसे अच्छे से अच्छा गांधीवादी भी सरल ढंग से कभी पेश नहीं कर पाया। उन लोगों ने इसे ज्यादा मुश्किल बनाकर रखा, जो लोग गांधीवाद पर दुकान चला रहे थे। ऐसा नहीं है कि उसे आसान बनाया नहीं जा सकता था, लेकिन उसके लिए अतिरिक्त मेहनत करनी पड़ती है। मानवीय स्वभाव ऐसा है कि वो मुश्किल चीजों से अक्सर बचना ही चाहता है। आराम से जो हो जाए वही वो करना चाहता है। बस नतीजा ये हुआ कि गांधीवाद, गांधी जी के मरने के बाद...कई दशकों तक यूं ही गूढ़ बना रहा। जबकि पूरी दुनिया उसके महत्व को समझ रही थी, लेकिन जिस देश की वो थाती था... वही देश उससे महरुम दिखता रहा। इसे विडंबना ही कहना चाहिए। संयुक्त राष्ट्र 2 अकटूबर को विश्व शांति दिवस मनाता रहा, लेकिन भारत गांधी के विचार से लगातार प्यासा ही रहा। वजह साफ थी गांधी विचार को लगातार दुरुह बनाकर रखा गया। हो सकता हो ऐसा अनजाने में ही हुआ हो, फिर भी ऐसा हुआ तो है।
जबकि पूरी दुनिया गांधी की प्रासंगिकता पर गदगद हुए जा रही थी, एक हम थे कि मुर्खों की तरह जापान,जर्मनी समेत बाक़ी दुनिया को गांधीवाद के लिए निहार रहे थे। क्योंकि जापान और जर्मनी ने गांधीवाद को ढंग से समझा।
हमारे गांधी हमी से अनजान रहे। लेकिन फिल्म लगे रहो मुन्नाभाई ने जिस आसान तरीके से गांधीवाद को समझाया और उसे प्रेक्टिकल बनाकर दिखाया, शायद कोई भी ऐसा नहीं कर पाया।
आखिर ऐसा क्यों हो पाया ? बस केवल और केवल गांधीवाद को आसान करने की वजह से। हालांकि फिल्मकार को इसके लिए काफी मशक्कत करनी पड़ी होगी। क्योंकि चीजों को सिम्लिफाई करना शायद सबसे बड़ा चुनौतीपुर्ण काम होता है। इसी चुनौती को शायद हमारे विज्ञान के टीचर्स नहीं लेते हैं। दूसरी तरफ पश्चिमी देशों में विज्ञान को बेहद आसान और सुरुचिपूर्ण तरीकों से पढ़ाया जाता है। यदि पोगो चैनल के कुछ ऐसे प्रोग्राम्स को देखा जाए तो इसे और भी बेहतर तरीके से समझा जा सकता है।
अब मैं आता हूं मुद्दे पर....आखिर न्यूज़ मीडिया में विज्ञान का क्या भविष्य है ?
हालांकि मैंने इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में विधिवत शुरुआत सन् 1998 में की थी लेकिन शुरुआत में, मैं भी राजनीति से ज्यादा प्रेरित था, जैसा कि कोई भी युवा हो सकता है। श्री विनोद दुआ के साथ परख, प्रतिदिन, सहारा न्यूज़लाइन करने लगा। साढ़े तीन साल ये सब किया। तीन साल की इस अवधि में ही मुझे इसमें छिपी वो सारी बातें पता चल गई, नेताओं के पीछे माइक लेकर भागना, बाइट में ही पूरी पत्रकारिता का सिमट जाना, मानों ऐसा लगने लगा कि क्या ऐसे ही चलते चले जाने का नाम पत्रकारिता है ?
प्यास बुझाने के चक्कर में छोड़ दिया मुख्यधारा का मीडिया और पहुंच गया एक ऐसी जगह जहां हालांकि मैं कहने को वनवास में था। लेकिन उस वनवास ने सीखने की एक ऐसी दृष्टि उपलब्ध कराई जिसके बाद चुनौतियों से लड़कर बहुत कुछ सीखने को मिला। श्री संजय त्रिपाठी के साथ उन सारी चीजों को सीखा जिनसे विषयों को आसान बनाया जाता है। संजय जी के साथ ये सीखा कि जब तक आप विज्ञान को आसान नहीं बनाएंगे, तब तक न तो उसे कोई समझेगा और न ही कोई उसमें रुचि लेगा। इससे पहले एक गुरु मंत्र श्री विनोद दुआ से मिल ही चुका था कि जिस हिन्दी में आप अपनी मां से संवाद करते हो, केवल उसी तरह की भाषा का इस्तेमाल टेलिविज़न में इस्तेमाल करो।
मौका आया 2005 का, ये साल था अलबर्ट आइंस्टाइन की 'थ्योरी ऑफ़ रिलेटिविटी' के सौ साल पूरे होने का। इस साल को युनाइटेड नेशन्स ने नाम दिया 'इअर ऑफ़ मॉडर्न फिजिक्स'
इसी विषय पर पूरे साल भर कार्यक्रमों की भरमार रही। 'पॉपुलराइज़ेशन ऑफ़ साइंस' के तहत इस पर तरह-तरह के प्रोग्राम्स बनाए गए। टेलिविज़न पर भी इसको लेकर प्रोग्राम्स बनाए गए। डिस्कवरी और नेशनल ज्योग्राफिक ने इसमें बाजी मारी। 2005 में किसी भी भारतीय चैनलों के मुक़ाबले इन्होंने टीआरपी के मामले में भी बाजी मारी। हालांकि हिन्दुस्तानी लोगों ने इन चैनलों के हिन्दी संस्करणों
को ही देखने में ज्यादा रुचि दिखाई है। दिखाए भी क्यों ना ?
विज्ञान प्रसार, डिपार्टमेंट ऑफ़ साइंस एंड टेक्नॉलोजी, भारत सरकार ने भी इस टॉपिक पर प्रोग्राम बनाने का मन बनाया। विषय था 'थ्योरी ऑफ़ रिलेटिविटी' जिसे बनाया जाना था हिन्दी में। ये भी अपने आपमें एक चुनौतिपूर्ण था। बहरहाल इसी में छुपा हुआ था मेरा विज्ञान से नाता ना होने का ऐसा बड़ा तर्क, जिसे चुनौती देना 'थ्योरी ऑफ़ रिलेटिविटी' पर फिल्म बनाने से बड़ी चुनौती था...
मैंने चुनौती दी और 22 मिनट की ऐसी डॉक्युमेंटरी बनाई फिल्म बनाई...जिसने आलोचकों की वाहवाही तो लूटी ही साथ ही यूजीसी का नेशनल अवॉर्ड भी जीता...
ये सिलसिला बदस्तूर जारी भी रहा...फिर एक पॉपुलर न्यूज़ चैनल में प्रवेश किया...'चंद्रयान' पर 10 सीरीज़ का एक ऐसा प्रोग्राम बनाया जिसने प्रमुख न्यूज़ चैनलों में वाहवाही भी लूटी....इसरो और उस समय के इसरो प्रमुख माधवन नायर ने चंद्रयान पर बनी इस सीरीज़ की प्रशंसा की...
लेकिन विज्ञान की लोकप्रिय कथाओं को न्यूज़ संस्करण का पहिया धामी गति में आ गया है...
प्रयास है इसकी रफ्तार बढ़ाई जाए....संभवत: 2011 इस दिशा में नया साल हो सकता है।
"सभी साथियों से सहयोग की अपेक्षा है''
आपका
शंभुनाथ
Sir,
ReplyDeleteVery very nice article and best of luck 2011.
Regards
Subhash
Pulse Media
जब रात है ऐसी मतवाली फिर सुबह का आलम क्या होगा बधाई
ReplyDeletethis is very nice way to spread ur knowledge..wht u think ..wht u do ..and form this you will get response also and reader read like news paper every day with cup of tea.best of luck for this blog journey.
ReplyDeleteKisne keh diya ki Rajnitik patrakarita mukhya dhaara ki hoti hai? Shayad un logon ko patrakarita ka sahi arth nahi maloom. Aap salary structure hi dekh lijiye.. samajh me aa jaayega... Gulaabi panno waale angreazi akhbaaron (business journals) me trainee ko bhi utni salary milti hai jitni swanaamdhanya hindi akhbaaron ke rajnitik samwaaddata (polotical reporter) aur parliament ki coverage kerne waale patrakaaron ki. Aapne jis vishesagyata ko apni mehnat aur pratibha se haasil kiya hai us star tak pahunchna kai logon ke liye sapna bhar hai. Mushkil vishayon ko saral ker ke samjhana hi sachchi patrakarita hai.. Hausla Buland rakhen.
ReplyDeletelikhna aur usko present karna aur dhaar daar present karnaa hi asal mai aaj kaa writer kehlataa hai
ReplyDeleteaap e article samaaj ki nayee dishaa dete hai aur hum logo ko ko poori jaan kari de rahey hai
badhale chalo kalam ki talwaar le kar , duniaa ko jao kuch dekar
andheraa is zamaane mai bhout hai, bas ek roshni dene wale ki zaroorat hai jo aap de rahey hai
housalaa hai tofaan se ladney kaa,]
agay badho , tanssion nahi kuch karnay kaa
hum sub saath hai
afzal khan